काश! तुम ना होते
22 inch * 30 inch
oil pastel on paper
कुछ सुन्न सा था, थोड़ी झनझनाहट भी,
टपकटते हुए देखा, पर एहसास कहीं नही ।
पलटा तो खंजर से हैरानी मगर,
करीबी तुम्हारी ने जान ले ली।
मन आहत, दर दर भटका ...
शरीर स्थूल, मगर चिनगारियों से भरा!
खिलखिला रही दुनिया, शायद तुम भी हंसे,
कुछ था जिसने अब भी ढूंढा तुम्हें।
समय विफल, अपने मजबूर ...
इस दर्द को आपे ही पीना पड़ा।
बेईमान है वो नफरत भी जो हमने तुमसे की,
"कुछ मजबूरी होगी", कह के निकल गई।
इंतजार किसका, धुआं तो कबका समा हो चुका ।
"ठगी या कला" अब जो ये किस्से कहें ...
कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है,
काश! तुम ना होते, काश! तुम ना होते ।